Wednesday, August 24, 2011

माँ के घर बेटी जन्मी बेटी के घर माँ

सुबह एक कविता पढ़ी भास्कर के सुप्लिमेंट्री पेज पर..मन भावुक हो उठा .. छोटी-छोटी प्यारी बातें हैं माँ की बेटी से और बेटी की माँ से.. लेकिन भावनावों में कितने गहरे उतरती है कविता. जीवन की पूनी से कती कविता माँ बेटी के रिश्तों के बहाने सबकी बातें साझा करती है. कविता अपने अर्थ खुद गढ़ती है .. और आँखों के पोर भीग जाते है.. सोचा साझा करून यह भावना..


बुने हुए स्वेटर में, अनपढ़ माँ ने भेजा है पैगाम
देहरी आँगन द्वार बुलाते, कब आयेगी अपने गाँव .
अरसा बीता ब्याह हुए क्या अब भी आती मेरी याद
कैसी है तूं? धड़क रहा मन, लौटी न बरसों के बाद.
मोर, कबूतर अब भी छत पर दाना चुगने आते हैं
बरसाती काले बादल तेरा पता पूछ कर जाते हैं.
रात की रानी की खुशबू में, तेरी महक समाई है
हवा चले तो यूँ लगता है जैसे बिटिया आई है.
आज भी ताज़ा लगते हैं, हल्दी के थापे हाथों के
एक-एक पल याद मुझे तेरे बचपन की बातों के.

सीवन टूटी जब कपड़ों की, या उधडी जब तुरपाई
कभी तवे पर हाथ जला जब, अम्मा तेरी याद आई.
छोटी-छोटी लोई से मै, सूरज चाँद बनाती थी
जली-कटी उस रोटी को तूं बड़े चाव से खाती थी.
जोधपुरी बंधेज सी रोटी, हाथ पिसा मोटा आटा
झूमर था भाई बहनों का कौर-कौर सबने बांटा.

अब समझी मै भरवा सब्जी, आखिर में क्यों तरल हुयी
जान किया माँ बनकर ही औरत इतनी सरल हुयी.
ज्ञान हुआ खूंटे की बछिया क्यों हर शाम रंभाती थी
गैया के थन दूध छलकता जब जंगल से आती थी.
मेरे ही अतीत की छाया इक सुन्दर सी बेटी है
कंधे तक तो आ पहुंची मुझसे थोड़ी छोटी है.
यूँ भोली है लेकिन थोड़ी जिद्दी है मेरे जैसी
चाहा मैंने न बन पाई खुद भी तेरे जैसी.
जब से गुडिया मुझे छोड़ परदेस गयी है पढने को
उस कुम्हार सी हुयी निठल्ली नहीं बचा कुछ गढ़ने को.
तूने तो माँ बीस बरस के बाद मुझे भेजा ससुराल
नन्ही बच्ची देश पराया किसे सुनावूँ दिल का हाल.
तेरी ममता की गर्मी अब भी हर रात रुलाती है
बेटी की जब हूक उठे तो याद तुम्हारी आती है.
जन्म दुबारा तेरी कोंख से तुझसा ही जीवन पाऊँ
बेटी हो हर बार मेरी फिर उसमे खुद को दोहराऊँ.

मुन्नी शर्मा, अजमेर



Friday, April 22, 2011

सवेरा होते ही जिंदगी की आम रफ़्तार के बीच कुशीनगर और महाराजगंज जनपदों के दर्ज़नो गाँव में भगवा चोले वाले ब्राह्मणों का आना अब सामान्य दिनचर्या का हिस्सा है। एक हाथ में एकतारा और दुसरे में करताल , कंधे पर झोला लटकाए यह बिरादरी पीढ़ियों से वैष्णव संतो और गोरख, कबीर की बानियों को दूर-दराज़ के गाँव में घर-घर पहुंचा रही है। पूर्वांचल में इस बिरादरी के कई गाँव आबाद हैं जहाँ 'सोरठी- बिर्जाभार" की लोकगाथा आज भी संरक्चित है।


बुनियादी सुविधाओं से तरसते अनेक गांवो की तरह ही है कुशीनगर जिले का गाँव खुतहीं। इसी गाँव का एक मौजा है घोशिपुर जहाँ आबाद हैं ब्राह्मणों के २५ परिवार जिन्होंने पीढ़ियों से गायन की एक विशिस्ट परम्परा को जिन्दा रखा हुआ है। हर सुबह जब गाँव की जिंदगी नमक,तेल, लकड़ी के जुगाड़ में खेती या मजदूरी पर जाने की तैयारी करता है तो पण्डे लोगो के परिवार पुरुष अपना जोगिया बना तैयार कर रहे होते है । दिन निकलने से पहले ही शुरू हो जाता है इनका सफ़र। आस-पास के गांवो से लेकर पडोसी जिलो तक ये घूमंतू लोग अपनी मस्ती में चले जातें हैं। एकदम अनपढ़ लेकिन अनुभव से पूरे पके हुए। रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्य हों या अन्य पौराणिक गाथाएं जुबान पर चढ़े हुए सैकड़ो प्रसंग। गाँव-गाँव और घर-घर पहुंचकर एक खास शैली में सटी बिहुला , गोपीचंद की गाथाएं और कबीरदास की निर्गुण रचनाओं को सुनते हुए इनके चेहरे पर आई सूफियाना मस्ती देखने लायक होती है। इन्ही साज़-बाज़ और आवाज़ के सहारे मिले अन्न से यह बिरादरी संतोष कर रही है। इनके लिए न अतीत वजनदार है और न भविष्य चमकदार। उनके बुजुर्गों के मुताबिक उनके परिवार में यह काम पीढ़ियों से चली आ जाही परंपरा का हिस्सा है। इसी गाँव के वीरेंदर पांडे सटी बिहुला की कारुणिक गाथा के जोशीले गायक हैं। उम्र से नौजवान लेकिन अनुभवों से प्रोढ़ हो चुके वीरेंदर को अपने पेशे पर गुमान तो है लेकिन बच्चों को पढ़ा न सकने की मजबूरी उन्हें मायूश कर देती है। वीरेंदर और उदयभान जैसे दर्जनों लोग रोज़ अपनी मस्ती में गाते बजाते जिला ज़वार की सरहदों से पार बिहार और नेपाल तक भोजपुरिया लोक गाथाओं की सोंधी महक पहुंचा आते है है । उन्हें भरोसा है तो आदमी की आदमियत पर जो उन्हें पूरी दुनिया को अपना घर समझने का हौसला देती है। बिना खेती और रोज़गार के इस विशिस्ट कला और भिक्छातन के सहारे परिवार को पाल-पोश लेने का गणित अब उलझने लगा है। साज़ और गायन की इस अनूठी परम्परा को सदियों से समेटे यह बिरादरी अपने सांस्कृतिक मूल्यों से खुद अनजान है। इसका मंचीय उपयोग करने की बात कभी इनके दिमाग में आई ही नहीं। कुछ गाँव में सिमटकर रह गई इस बिरादरी की मौजूदा पीढ़ी के साथ ही भोजपुरिया समाज से गोरख, कबीर की बानियों के साथ राजा भरथरी और गोपीचंद की गाथाओं के गायन की परम्परा ख़त्म होने के कगार पर है। फिर सायद किसी बिर्जाभार को १२ वर्ष जंगलो पहाड़ों और नगरो - गांवो में भटक कर सोरठी को खोजना पड़ेगा ताकि लोक के बिगड़े हुए मिजाज़ को ठीक किया जा सके.

Friday, May 15, 2009

शुरुआत

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
"..शहर में रहना मज़बूरी पेट की, पर गांव जो भीतर रचा-बसा है,उसे कहा, किस गली, किस नुक्कड़ ,और किस चौराहे पर कर दू नीलाम, बिन मोल लिए,,,,है कोई तैयार,,,,...शायद कहीं मिल जाये कोई ,,मेरा पेट भर जाये....... और फिर सो सकूँ अपनी अमराई में ...... फिर से जागे गाँव मेरे भीतर का ..... "